प्रकरण 4
संध्या का स्वास्थ्य पिछले कुछ दिनों से बिगड़ता जा रहा है, पिता के उपचार से लाभ होना, तो दूर रहा, उलटे हानि हो रही है। जगदधात्री डॉक्टर विपिन से सम्पर्क करने को कहती और संध्या असहमति में झगड़ा करती। आज शाम संध्या द्वारा बनाये साबूदाना को अनमने भाव से निगल गयी; क्योंकि यह पथ्य उसे कभी रुचिकर नहीं रहा, किन्तु आज माँ उपालम्भ से बचने के लिए वह न चाहते हुए भी निगल गयी। वह इस तथ्य से भली प्रकार परिचित थी कि उसकी माँ का सारा ध्यान इस ओर टिका होगा कि लड़की ठीक से खाती है या नहीं। खाने से पहले वह किसी पुस्तक को पढ़ रही थी। ज्यों ही वह गोद में खुली पड़ी पुस्तक को समेटने लगी, त्यों ही उसने खिड़की से अपने को बुलाये जाने की आवाज को सुना। बाहर आकर उसने देखा कि सामने अरुण खड़ा आवाज लगा रहा था, “चाची घर पर हो?”
समीप आकर अरुण बोला, “हाँ, किन्तु तुम इतनी मरियल कैसे हो गयी हो? कहीं फिर से बीमार तो नहीं पड़ गयीं?”
“यही लगता है, किन्तु तुम भी तो मुझे स्वस्थ नहीं दिखते?”
हंसकर अरुण बोला, “जब दिन-भर नहाना-खाना कुछ भी नसीब नहीं हुआ तो चेहरे का मुरझाना तो निश्चित था, तुमने पैटर्न की फरमाइश की थी, पूरे दिन उसकी खोज में भटकता फिरा।”
यह कहते हुए अरुण ने अपने बैग से कागड का एक बण्डल निकालकर सन्घ्या को थमा दिया और बोला, “चाचा तो बाहर निकल गये होंग, किन्तु चाची दिखाई नहीं देती, वह कहां गयी है? पिछले शनिवार को घर न आने पर तुम्हारा सामान लाने में देर हो गयी।”
संध्या बोली, “स्टेशन से घर न जाकर सीधे इधर चले आये हो, ऐसी क्या जल्दी थी? घण्टे-भर बाद आते, तो क्या अन्तर पड़ जाना था?”
अरुण बोला, “मेरा खाना-पीना तो संध्या के बाद होगा, कोई जल्दी नहीं, किन्तु तुम्हारा जल्दी जल्दी बीमार पड़ जाना भारी चिन्ता का विषय है।”
“संध्या के बाद” शब्दों मे श्लेष था. छिपा अर्थ-था पहले संध्या खोयेगी, तभी तो अरुण-खा सकेगा। इस तथ्य को समझते ही संध्या के कान लाल हो उठे और ह्दय में आनन्द दौ़ड़ गया, किन्तु ऊपर (बाहर) से संध्या ने अपने को ऐसा सामान्य दिखाया, मानो वह कुछ समझी ही न हो। फिर भी श्लेष का प्रयोग करती हुई संध्या बोली, “अब संध्या होने में बी कितना समय बचा है, अधिक देर करना ठीक नहीं, जाकर नहा-खा लो।”
हंसता हुआ अरुण उत्तर तो देना चाहता था, किन्तु सामने आ खड़ी चाची की मुखमुद्रा को देखकर चुप हो गया। क्रुद्ध जगदधात्री भुनभुनाती हुई कमरे से बाहर हो गयी। बाहर आने से पहेल लड़की से बोली, “बेटी, पहले मुंह रखे पान चबाना छोड़ो और थूककर बाहर फेंक दो, फिर जी-भरकर हंसी-मजाक करही रहो।”
चुपचाप खड़े अरुण न यह सब सुना, तो अपने को एकदम आहत अनुभव करने लगा। संध्या को माँ का कथन सही नहीं लगा। दोनों का चेहरा एकदम काला पड़ गया, मानो प्रकाश का स्थान संध्या के अन्धकार ने ले लिया हो। काफी देर तक हक्का-बक्का रहने के बाद संभली संध्या पान थूककर दुःखी स्वर में अरुण से बोली, “तुम अपने को अपमानित देखने के लिए इस घर में क्यों आते हो? क्या तुम हम लोगों का सर्वनाश करके प्रसन्न होओगे?”
कुछ देर की चुप्पी के बाद अरुण बोला, “संध्या, तुमने मुंह का पान थूक दिया है, इसका अर्थ है कि तुम मुझे सचमुच अछूत मानती हो।”
सहसा आँसू बहाती हुई संध्या बोली, “तुम्हारा न तो कोई धर्म है और न कोई जाति, किन्तु मैं पूछती हुँ कि तुमने मुझे क्यो छुआ है?”
चकित-विस्मित हुआ अरुण बोला, “संध्या, क्या कहती हो, मेरी कोई जाति और धर्म नहीं है?”
संध्या दृढ़ स्वर में बोली, “मैंने कुछ गलत नहीं कहा, तुम विलायत गये हो या नहीं? इसलिए तुम म्लेच्छ हो और इसीलिए तुम्हें उस दिन माँ ने पीतल के लोटे में पानी दिया था। क्या यह भी भूल गये हो?”
“नहीं, मुझे याद नहीं, किन्तु क्या तुम भी मुझे अछूच मानती हो?”
“मेरे मानने-न मानने से क्या होता है? तुम तो जिस दिन से लोगों की मनाही को इनकार कर विलायत गये हो, उसी दिन से सबकी दृष्टि में अछूत बन गये हो।”
अरुण बोला, “किन्तु मैं सोचता था...।”
“तुम क्या सोचते थे कि मैं बाकी लोगों से अलग हूँ?”
अरुक इसका कुछ भी उत्तर न दे सका, किन्तु कुछ देर बाद वह बोला, “इसका अर्थ हे कि मुझे अब इस घर में नहीं आना चाहिए, किन्तु मेरा तुमसे अनुरोध हे कि तुम मेरी उपेक्षा मत करो। मैंने ऐसा कोई भी काम नहीं किया, जिससे लिए मुझे लज्जित होना पड़े अथवा पश्चाताप करना पड़े।”
संध्या बोली, “अरुण भैया! क्या तुम्हें भूख-प्यास नहीं सताती, जो बेकार में इतनी देर से मुझसे उलझ रहे हो?”
“मैं तुमसे भला क्यो उलझाने लगा? अपने से धृणा करने वाले से उलझने में भला कौन-सी समझदारी है?”
यह कहकर अरुण बाहर चला गया और पाषाण-प्रतिमा बनी संध्या एकटक उसे देखती रह गयी।
प्रसन्न होकर लौटी संध्या की माँ बोली, “अच्छा हुआ, जो चला गया, अब कभी इधर मुंह नहीं करेगा।”
संध्या को मानो बिजली का करण्ट लगा, “क्या कहा?”
माँ बोली, “बेकार में तुझे छू गया, जा कपडे बदल ले।”
बेटी के मन की प्रतिक्रिया को माँ समझ न सकी, इसीलिए बोली, “अरुण क्रिस्तान जो ठहरा, कपड़े जो बदलने ही होंगे। अरी, कोई विधवा अथवा वृद्ध, तो उससे छू जाने पर स्नान के बाद ही शुद्ध होती। उस दिन रासो मौसी....। माना कि वह अपने मुंह मिया-मिट्ठु बनती हैं, फिर भी, यह तो मानना ही पड़ेगा कि आचार की रक्षा में वह आदर्श है। दूले की छोकरी के द्वारा न छूए जाने की कहने पर भी मौसी ने नातिन को नहलाकर ही दम लिया।”
संध्या ने कहा, “ठीक है, मैं वस्त्र बदलकर आती हूँ।”
माँ आदर्श के महत्व पर भाषण झाड़ने जा रही थी कि पीछे से आ रही पुकार को सुनकर रुक गयी, “जगदधात्री! घर में हो ने!” कहते हुए गोलोक चटर्जी उसके घर के आंगन में आ खड़े हुए।
चटर्जी महाशय का स्वागत करती हुई जगदधात्री बोली, “अहोभाग्य, जो आज सुदामा की कुटिया में कृष्ण बनकर मामा पधारे है।”
जगदधात्री मुस्कारा तो रही थी, किन्तु रासमणि की बात के याद आते ही वह चिन्तित हो उठी। संध्या उठकर खड़ी हो गयी और गोलोक जगदधात्री की उपेक्षा करके संध्या की और उन्मुख होकर बोला, “कैसी हो संध्या? कुछ दुबली लग रही हो? स्वास्थ्य तो ठीक चल रहा है न?”
सकुचाती हुई संध्या बोली, “बाबा, मैं ठीक हूँ।”
माँ नकली मुस्कान चेहरे पर लाकर बोली, “मामा, वैसे तो लड़की ठीक है, किन्तु पिछले महीने से रह-रहकर ज्वर का आक्रमण हो जाता है। आज कितने दिनों के बाद सागूदाना खाया है।”
गोलोक बोला, “अच्छा तो यह बात है! अरे, विवाह न करके लड़की को कुंआरी रखोगी, तो यह सब होगा। जिसे अब तक दो-चार बच्चों की माँ होना चाहिए था, उसे तुमने कुंआरी रख छोड़ा है। कब इसका विवाह कर रही हो?”
गोलोक की बात को बदलती हुइ जगदधात्री बोली, “मैं ठरही औरत। तुम्हारे दामाद को इसकी चिन्ता ही नहीं है। वह तो अपनी डॉक्टरी में मस्त हैं। मामा, अपने पति के व्यवहार को देखकर तो मन में आता है कि झूठी मोह-माया छोड़कर काशी में सास के पास चली चाऊं। पीछे जो होना हो, होता रहे।” कहती हुई उसका गला रुंध गया और वह बिलखने लगी।
गोलोक ने पूछा, “वह पगला आजकल क्या करता है?”
जगदधात्री बोली, “वह ठीक से पागल बी तो नहीं, जो उन्हें घर में जंजीर से बांधकर रखूं वह न तो पागल है और न ही समझदार। मेरा जीवन तो इस